АЛЕКСАНДР  ПУШКИН
Телега  жизни
Хоть  тяжело  подчас  в  ней  бремя,
Телега  на  ходу  легка;
Ямщик  лихой,  седое  время,
Везет,  не  слезет  с  облучка.
С  утра  садимся  мы  в  телегу;
Мы  рады  голову  сломать
И,  презирая  лень  и  негу,
Кричим:  пошел!  ебёна  мать!
Но  в  полдень  нет  уж  той  отваги;
Порастрясло  нас;  нам  страшней
И  косогоры  и  овраги;
Кричим:  полегче,  дуралей!
Катит  по-прежнему  телега;
Под  вечер  мы  привыкли  к  ней
И  дремля  едем  до  ночлега,
А  время  гонит  лошадей.
(1823)
          
  Alexander Puschkin  
  Die  Fuhre   des  Lebens
  Sie  ist  bisweilen schwer belastet,
Doch  fährt  die  Fuhre  leicht   und  weit;
Und  ohne  Pause  hetzt  und  hastet
Der  flinke  Fuhrmann,   graue  Zeit.
  Des Morgens  steigt  man  in  die  Kutsche,
Die   Angst  vorm  Scheitern  hat  man  nie,--
Und  schreit,  bereit  auch  abzurutschen: 
"Los,  dalli!   Ficke  dich  ins  Knie!"
  Doch  gegen   Mittag  sind  wir  bänger:Durchschüttelt  schauen  wir   herum:
Die  tiefen  Schlüchte,   steile  Hänge... 
Wir  rufen:  "Leichter,  Ungetüm!"
   Tja...  Kaum geändert   rollt  die Fuhre, 
Des  Abends  sind`s   wir  schon  gewohnt,
Spät  kommt  die  Nacht,  man  späht  nach Uhren,--
Obschon die  Zeit  das  Pferd  nicht  schont.
  
  
  
  
  
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